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Friday, February 2, 2024
मीना गीत संस्कृति छलावा या व्यापार
Saturday, January 13, 2024
बचपन की मकर सक्रांति
Thursday, January 11, 2024
किसान कर्ज
Tuesday, August 22, 2023
बीमार मानसिकता
बीमार मानसिकता
# सामाजिक मंच #
• बीमार मानसिकता *
' "चुन्नी में चुन्नी में परफ्यूम लगावे चुन्नी में...."
मीना गीत के साथ हाथ हिलाते हुए एक भाभीजी स्टेज पर आती है और अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन करने लगती है इतने में ही स्टेज के दूसरे छोर खड़े लोग साथ में नाचने लगते है ऐसा लगता है जैसे मानो नृत्यांगना का साथ देने के लिए ही भिड़ जुटाई गई जिससे उसका हौसला बुलंदियों के आसमान को छू सके।
सामाजिक मंच परिसर का वातावरण पूरी तरह आनंद की भावना से सराबोर हो गया। तभी“चीज ब्रांड मीणा च”युवा नेता ने अपने साउंड वाले को यह निर्देश दिया।
“ जी भाई साहब।”साउंड वाले ने लं ... बा ... सलाम ठोका।
गाना बदल दिया और फिर सभी उस गाने पर अपनी कला का प्रदर्शन करने लगे ।
सुनो ... भेद-भाव किए बिना, सभी आगंतुकों को एक समान
समोसा जलेबी मिलनी चाहिए। ध्यान से कोई छूटे नहीं। " मंच संचालक
आदेशात्मक स्वर में छोटे कार्यकर्ता से कहा।
“ ठीक है भाई साहब । ”
आदेशानुसार, कार्यकर्ता उसी प्रांगण के सभी लोगो को ... तत्परता से जलेबी समोसे की नाश्ता बांटने में व्यस्त हो गया।
मिलन समारोह का कार्यक्रम में डांस चलता रहा गाने बदलते गए और हर बार डांसर बदलता गया झुंड में नाचते रहे! वहाँ उपस्थित सभी लोग कार्यक्रम को देखने में आनंदमग्न, भाव विभोर थे।
कार्यक्रम से दू..र, परिसर के एक कोने में खड़े ..संगठन के
दो कार्यकर्ता, गणमान्य के स्वागत में में आए नाश्ते के पैकेटों में से
कुछ पैकेटों को निकाल कर, सभी की नजरों से बचाते हुए
अपनी-अपनी झोली में जल्दी से रख रहा था।
तभी, दर्शक दीर्घा के में बैठे कुछ लोगो की निगाह उन पर पड़ गई थी लेकिन उन्होंने इस तरह से रिएक्ट किया जैसे लोगो ने कुछ देखा ही नहीं.......।
थोड़ी देर में सब नाच गान से थक जाते है और सभा में सामाजिक चर्चाओं पर बात करने के लिए सभी आ गए जिनमें सबसे अहम मुद्दा था #डीजे_बंद किया जाए।
सभी का तर्क था की इस से समाज में गलत संदेश जा रहा है और लड़ाई को जड़ का काम कर रहा है इस से हमारे बच्चों पर गहरा असर पड़ रहा है।
वो अलग बात है की सामाजिक मंच पर नाच गान किया जा रहा था साथ ही कथा भगवतों में कथा वाचक के सामने नाचने की खुली छूट है वही पद यात्राओं में "हवा निकल गई पहिया की " जैसे गानों पर समाज की नाबालिग लड़की के साथ बड़ी बूढ़ी महिला भी नाच सकती है क्योंकि धर्म की जड़ सदा हरी रहती है।
दूसरा मुद्दा था #नुक्ता(मृत्यभोज) सभा में ये मुद्दा भी काफी चर्चाओं में रहा क्योंकि नई पीढ़ी काफी सजग हो चुकी है मृत्यु भोज नही करना चाहती जो की सही भी है लेकिन नुक्ता 12 वे दिन ना करके 13,14 या 15 दिन बाद किया जाता है तो पूरा गांव बड़े चाव से जीम सकता है क्योंकि वो नुक्ता की श्रेणी में नही आयेगा।।
#चोरी और #दहेज जैसे मुद्दे पर बात ही नही बन सकी क्योंकि पटेल का छोरा अभी IAS हुआ है और छोरा का रिश्ता 2 करोड़ में तय हुआ है किसी की हिम्मत नही की IAS के बाप से 2 शब्द कह जाए दूसरा पटेल इसलिए नही बोल रहा था वो अपने बेटे को कल बाइक चोरी से छुड़वा कर लाया था सुना है की उसका बेटा स्मैक के चक्कर में चैन छोरी करता फिर रहा है एक बार तो महिला का गले से चैन तोड़ते टाइम महिला गिर गई और गहरी चोट आई थीं जिसके चक्कर में पटेल जी ने 4 लाख में केस सुलझाया था ऊपर से छोरे के लिंक टपोरियों से था पटेल पर उंगली उठाने की हिम्मत किसकी हो सकती है ??
#रील्स बनाने वाली महिलाओं पर चर्चा करने वाले थे लेकिन जो चर्चा करने आई थी वे अभी स्टेज पर नाचने और रील्स बनाने ही बिजी थी उनके हैंसबैंड फोन पकड़े हुए थे इसलिए सभा में भी शामिल नही हो पाए
हा सभा में सभी सहानुभूति का पूरा ख्याल रखा गया था जिसकी जितनी फैन फॉलोइंग थी उसके साथ उतनी ही सेल्फी ली जा रही थी ऐसे में समाज की #हिरोइन (रील्स बनाकर अपने सुंदर सुशील और संस्कार रूपी शरीर से संस्कृति से एक महान पहचान दिलाने वाली) को सम्मानित किया गया उन्हे प्रशस्ति पत्र दिया गया। इसके बाद सभी ने सेल्फी खिंचवाई थी सेल्फी खिंचवाने वालो की संख्या को देखकर ऐसा लग रहा था गुड की भेली पर मक्खियां भिनभिना रही हो ।।
इनकी फैन फॉलोइंग को देखकर मेरी आंखों में आंसू भर आए थे कितनी महान हस्ती है हमारे समाज में जिनका मुझे अब अहसास हो रहा था ।
नोट: मैं सभा में नही था ये केवल परिकल्पना है ।
जयसिंह नारेड़ा
Wednesday, July 19, 2023
नौकरी
#नौकरी
अच्छा नौकरी शब्द सभी को अच्छा लगता है आखिर अच्छा लगे भी क्यों नही ? ये एक परिवार,दोस्त और अपनो को खुशियां देने वाला शब्द है वही जिसे नौकरी मिली है उसकी जीवन के सपनो को साकार करने वाला शब्द है..!!
हर कोई नोकरी के लिए कठोर मेहनत करता है चाहे वो प्राइवेट नोकरी हो या सरकारी लेकिन ये दोनो ही हर किसी के नसीब में नहीं होती है। नोकरी के लिए जितनी मेहनत करते है उतनी ही कम लगती है क्योंकि कंपीटीशन उतना ही ज्यादा हो गया है
कई बार दरवाजे पर दस्तक देकर वापस चली जाती है तो कई बार बिना मेहनत के भी मिल जाती है। खैर दोनो के अपनी मेहनत और लग्न छुपी हुई होती है।
लेकिन क्या आपने कभी सोचा है जो व्यक्ति नोकरी करता है क्या वो अपनी नोकरी के पूर्ण रूप से खुश है शायद नही.....
देखिए नोकरी चाहे कैसी भी हो परिवार से जुदा करवा देती है तुम्हे परिवार से अलग रहने को मजबूर कर देती है परिवार के साथ 2 वक्त का समय निकालने के लिए तरसना पड़ता है..!!
ऐसा जरूरी नहीं सभी के लिए हो किसी की नौकरी परिवार के साथ रहते हुए भी पूरी होती लेकिन वे कुछ प्रतिशत ही है अधिकतर लोग अपने परिवार को किश्तो में ही टाइम दे पाते है।
हर एक पल किसी त्योहार या घर परिवार के विशेष परियोजन(अवसर) की उम्मीद लगाए बैठे रहते है जैसे होली खत्म तो राखी पर जाने की सोचते है, राखी खत्म तो दिवाली पर और दिवाली खत्म होते ही शादियों का इंतजार करते है फिर वही होली दिवाली की रट लगाए रहते है...!
सुबह घर से तैयार होकर ऑफिस के लिए निकलना और दिन भर ऑफिस में बॉस के ताने सुनना या फिर कामों में बिजी रहना और फिर शाम को थके हुए घर आना फिर खाना बनाकर खाना और सो जाना सुबह फिर वही रूटीन....कब सुबह का नाश्ता और रोटी भूल गए पता भी नही चलता...टाइम किसी का इंतजार थोड़ी करता है.!ऐसा लगता है जैसे यही रूटीन बन गया हो जैसे जीवन का बाकी मकसद तो मानो खत्म सा ही हो गया हो....बाहरी दुनिया को तो जैसे नजरंदाज कर दिया हो....इसमें फेसबुक ही एक मात्र आपके हंसने और हंसाने का जरिया बन चुकी होती है...!!
छुट्टियां होते हुए भी समय छुट्टी ना मिले तो बहुत गुस्सा आता है जब पूरा परिवार त्योहार या उस अवसर का इंतजार कर रहे हो वे सब खुशियां मना रहे हो आप सिर्फ वीडियो कॉल या कॉल पर उनके साथ सम्मलित हुए हो.....तब लगता है क्या यार क्या हम सिर्फ पेट भरने के लिए ही पैदा हुए है ?? क्या हमे परिवार की खुशियों में सांझा होने का हक नहीं है ??
लेकिन आपकी मजबूरियां( नोकरी की जंजीरो में बंधे आपके अरमान) आपसे ये सब करवा रहे होते है।
जो परिवार हंस रहा खेल रहा है वो कहीं न कही आपकी ही मेहनत और मजबूरियों का नतीजा है उनकी खुशियों की वजह तुम हो.....
हमेशा खुश रहे और मुस्कुराते हुए अपने परिवार को खुश रखने की कोशिश में लगे रहे यही तो जीवन है......परिवार के साथ ना सही परिवार के लिए ही सही.....!!
जयसिंह नारेड़ा
Saturday, April 29, 2023
राजपूतो ने मुगलों को अपनी बेटी दे कर बचाए थे राज्य
Friday, February 17, 2023
कला या चमत्कार
Monday, January 30, 2023
बस का सफर
आज ऑफिस से घर जाने के लिए देर हो रही थी इसलिए मैं जल्दी-जल्दी ऑफिस से घर के लिए निकल पड़ा. मेरा ऑफिस घर से करीब 15 किलोमीटर दूर स्थित है और मुझे वहाँ पहुचनें के लिए उत्तम नगर से रोज बस पकड़नी पड़ती है.
आज में बस स्टॉप पर थोड़ा देर से पहुँचा था और मेरी निगाह 817 नंबर वाली बस जा चुकी थी. कुछ ही पल में एक बस आई और मैं उसमें चढ़ गया.
आज बस में काफी ज्यादा भीड़ थी. बड़ी मुश्किल से मुझे बैठने के लिए थोड़ी सी जगह मिल पाई. बस रवाना हो चुकी थी और मैं अपने कान में लीड लगाकर गाने सुनने का मन करने लगा फिर भीड़ को देख कर मोबाइल निकालने की हिम्मत नही हुई क्योंकि मोबाइल चोरी के किस्से मैने बहुत सुन रखे थे.!! यहां कब मोबाइल,पर्स और पैसे गायब हो जाए पता नही लगता इस क्षेत्र में चोर बहुत ज्यादा है। इसलिए मोबाइल जेब पड़े रहने देना ही मैने ठीक समझा ।।
मेरे मन में तरह-तरह के विचारों ने उथल पुथल मचाना शुरू कर दिया. बस और रेल का सफर करनें पर असली भारत के दर्शन होते हैं, यहीं पर ही भारत की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति का वास्तविक पता चल पाता है.
इनमें ही अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा, हिन्दू-मुस्लिम आदि सभी धर्मों, वर्णों और सभी तरह की हैसियत वाले लोग सफर करते हैं. कई लोग वक्त का सदुपयोग करने के लिए राजनीतिक चोसर को फैला कर कुछ न कुछ वाद विवाद का पासा फैंक देते हैं और सभी लोग इस राजनीतिक चर्चा और वाद विवाद के पासे को चटकारे के साथ खेलना शुरू कर देते हैं.
बस में कुछ युवा कानों में इयरफोन लगाकर गाने सुनने में मशगूल थे, तो कुछ लोग अपनी सहयात्री से बाते करने में मशगूल हो गए थे।
मेरे आगे की सीट पर तीन चालीस पैंतालीस वर्ष के आदमीं बैठे हुए थे तथा वो किसी बात पर वाद विवाद कर रहे थे. मैं भी बैठे-बैठे बोर हो रहा था सो मैंने उनकी बातों पर ध्यान देना शुरू कर दिया. वो लोग आदर, संस्कार और परम्पराओं के बारे में बातें कर रहे थे.।
उनमे से एक बोला “अब तो समाज में किसी के लिए भी आदर नाम की कोई चीज नहीं बची है, आज पड़ौस में रहने वाली एक छोटी सी बच्ची मुझसे जबान लड़ाने लग गई.
उसके घरवालों को इतनी भी तमीज नहीं है कि वो उस बच्ची को आदर और संस्कारों के बारे में कुछ सिखाये. बड़ो से कैसे बात की जाती है? कैसे उनका आदर किया जाता है? अंकल न सही, कम से कम नाम के आगे जी तो लगा देती.“सीधे ही नाम से संबोधित कर रही थी तू तड़ाके से बात करने लगी थी.!
दूसरा आदमीं उसकी बात में हाँ से हाँ मिलाते हुए बोला “तुम सही कहते हो, अब तो बच्चों को क्या बच्चों के पेरेंट्स को भी संस्कारों का नहीं पता.।
वैसे बच्चों का भी अधिक दोष नहीं है क्योंकि बच्चे तो वही सीखेंगे जो वो घर में देखेंगे और जब घरों का वातावरण ही कुसंस्कारी हो रहा है तो फिर बच्चों का क्या दोष हैं. लोग अब बड़े बुजुर्गों का आदर सम्मान कहाँ करते हैं ?”
अब तीसरे की बारी थी सो वह भी बोल पड़ा “भाई, बात तो सही है, संस्कार तो पुरानी पीढ़ी से ही नई पीढ़ी में स्थानांतरित होते हैं और जब पुरानी पीढ़ी ही संस्कारों से महरूम रहे तो वो नई पीढ़ी को क्या संस्कार दे पायेगी.
अपने समय में तो ऐसा नहीं होता था, हम तो बड़े बुजुर्गों को उनके पैर छूकर सम्मान दिया करते थे. अब कहाँ किसी का सम्मान रह गया है? सब पाश्च्यात संस्कृति में रंगे जा रहे हैं और कोई किसी को सम्मान नहीं देता है, संस्कार समाप्त होते जा रहे हैं.“।
अभी इनकी बातें चल ही रही थी कि अगले बस स्टॉप उत्तम नगर वेस्ट से एक औरत अपने एक हाथ में थैला और दूसरे हाथ में लगभग तीन साल के बच्चे को लेकर चढ़ी.
बस में सीट तो क्या पैर रखने की भी जगह नहीं थी परन्तु फिर भी उसने चारों तरफ ढूँढती हुई निगाहों से देखा और मेरे आगे वाली सीट के कुछ आगे खड़ी हो गई.
अचानक बस चालक ने ब्रेक लगाये और वो महिला बच्चे सहित आगे की तरफ गिरती गिरती बची और फिर से अपनी जगह पर खड़ी हो गई. उसने उन तीन संस्कारी आदमियों की तरफ देखा तो उनमें से एक फुसफुसाया “यहाँ तो हम पहले से ही तीन लोग बैठे हुए हैं, यहाँ पर जगह नहीं हैं.“
फिर कुछ देर पश्चात अगले बस स्टॉप नवादा से लगभग सत्तर वर्ष के एक बुजुर्ग बस में चढ़े. पीछे आकर वो भी उस महिला के पास में खड़े हो गए परन्तु किसी ने भी न तो उस बुजुर्ग के लिए और न ही उस महिला के लिए सीट छोड़ी.
मैं भी इस बारे में सोच रहा था परन्तु पता नहीं क्यों मैं भी ऐसा नहीं कर पाया. शायद में भी रोज-रोज एक सी परिस्थितियाँ देखकर संस्कारविहीन हो चुका था.
अगले स्टॉप द्वारका मोड़ पर लगभग बीस वर्ष की एक सुन्दर युवती बस में चढ़ी. उस युवती को बस में चढ़ता देखकर ऐसा लगा जैसे बस में बैठा हर पुरुष ये दुआ कर रहा हो कि काश ये मेरे पास आकर बैठे.।
बस में जगह नहीं थी सो वह भी पीछे आकर उन बुजुर्ग के पास खड़ी हो गई. उसे बस में खड़ा देखकर उन तीन आदमियों का जी जलता हुआ सा प्रतीत हो रहा था.।
जब रहा नहीं गया तो उनमे से एक बोला “आप यहाँ बैठ जाइये.” एक अजनबी के द्वारा सीट मिलने पर वह खुश हुई परन्तु फिर बोली “लेकिन यहाँ तो सीट खाली ही नहीं है?” दूसरा बोला “कोई बात नहीं, हम लोग थोड़ा-थोड़ा एडजस्ट कर लेंगे.“
लेकिन वो थोड़ा सकुचाते हुए बोली “नहीं नहीं, कोई बात नहीं.“ उसका ये उत्तर सुनकर तीसरे आदमी का पौरुष जागा और वह सीट पर से उठते हुए बोला “ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई महिला खड़े-खड़े सफर करे और हम देखते रहें.
ये हमारे आदर और संस्कार नहीं है कि हम महिलाओं का सम्मान नहीं करें. हमारी संस्कृति हमें महिलाओं और बुजुर्गों का सम्मान करना सिखाती है इसलिए आप कृपया यहाँ पर बैठिये.“ इतने आदर्श वाक्य सुनकर वह युवती मनमोहक मुस्कान के साथ उसकी सीट पर बैठ गई.
पास ही खड़े बुजुर्ग और बच्चे के साथ वाली महिला ये सब देखकर सोच में पड़ गए कि “हम भी तो इतनी देर से बस में खड़े थे फिर अचानक इनका सोया हुआ ये सम्मान कैसे जाग गया?”
इस प्रकार के आदर और सम्मान को देखकर मैं शर्म से पानी-पानी हुए जा रहा था और आखिर में मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने अपनी सीट पर उस महिला को बैठाया और स्वयं खड़ा हो गया. मैंने महसूस किया कि अब मेरे मन में एक अजीब सा गर्व हिलोरे मार रहा था.
मिलते है अगले किस्से के साथ......
जयसिंह नारेड़ा
Sunday, January 8, 2023
अच्छा हम इतने फ्री है
Sunday, December 25, 2022
इश्कग्राम या इंस्टाग्राम की एक सच्चाई
Saturday, November 12, 2022
मेरे गांव का चतर
मेरे गांव का चतर
ये कोई कहानी नहीं है बल्कि एक प्रेरणा है जो हमे संघर्ष की और प्रेरित करती है । टोडाभीम से गुढ़ाचन्द्रजी मार्ग पर अरावली पर्वत मालाओं की तलहटियों में बसा छोटा सा गांव है! गांव की बसावट पहले पहाड़ों के मध्य हुआ हुआ करती थी जो की तीन दिशाओं से घिरा हुआ था लेकिन खेती के लिए दूर होने के कारण लोग अपने अपने खेतों में रहने लगे और आज पूर्व स्थान को छोड़ कर डूंगर की तलहटियों में आ बसा है। गांव आधुनिक सुख सुविधाओं से परिपूरित है गांव में पानी पर्याप्त मात्रा में पूर्ति होने के बजह से खेती ही गांव के लोगो की जीविकोपार्जन है। गांव में सभी साधारण परिवार थे कुछेक सक्षम परिवारों को छोड़ कर और उन्ही मे से एक चतर का घर भी था बहुत साधारण और पुराने तरीके से बना हुआ ।
दो गह पाटोड जो की कली से पुती हुई और गोबर से लेपी हुई जो की गांवों में बड़ी आसानी से मिल जाया करती है। चतर के पिताजी बचपन से ही मेहनती रहे है उन्होंने डूंगर से पत्थर खोद कर इन्हे पढ़ाया लिखाया । एक बात तो मैं बताना ही भूल गया चतर और अशोक दो भाई है लेकिन अशोक अधिकतर मामा के यहां रहा था जिसकी वजह से गांव में बहुत कम ही रहा है। जबकि चतर शुरुआती शिक्षा गांव के ही सरकारी स्कूल से हुई है 8 वी तक की शिक्षा हासिल करने के बाद गांव में 8 वी से बड़ी स्कूल नही होने की वजह से हाई स्कूल पदमपुरा से अपनी शिक्षा जारी रखी और उसके बाद दौसा चला गया। यहां तक का सफर तो एक आसान सा सफर तय किया था । लेकिन ग्रेजुएशन के साथ साथ अपनी प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारियों के लिए जयपुर जाना चतर के लिए सबसे बड़ा मुस्किल काम था क्योंकि उसका परिवार इस खर्चे को वहन कर पाना मुस्किल था क्योंकि परिवार हालत ऐसी नही थी वो इसे जयपुर से अच्छी शिक्षा दिला सके ।
चतर ने इसी वजह से 2 साल अपने बड़े भाई के पास दौसा में ही ग्रेजुएशन करने में निकाल दिया । उसका बड़ा भाई का जीवन भी इसी तरह संघर्ष भरा हुआ था । ऐसा छोटा मोटा कोई नही था जिसे इन्होंने किया नही क्योंकि अपना खर्चा खुद चलाना था । बड़े भाई ने हलवाई के साथ काम करते हुए चतर की शिक्षा दिलाई खुद की शिक्षा को दरकिनार करते हुए चतर को प्रेरित किया ।
उस समय मैं जयपुर ही रहा करता था मैंने चतर को अपने पास बुला लिया हम 4 लोग एक कमरे में रहने लगे वो दौर हमारे लिए काफी अच्छा रहा ।
चतर हमारे साथ रहते हुए काम की तलाश करता था और उसने काम की तलाश करते करते कोचिंग के पर्चे बांटने का काम शुरू कर दिया जिसके लिए उसे 200 रुपए दिन के दिए जाते थे । अब इसका सुबह टोंक फाटक से निकलता और शाम को टोंक फाटक पर ही पर्चे बांटते हुए छिपने लगा रूम पर थका हारा हुआ आता था और कभी कभी तो रात में भी पोस्टर चिपकाने का काम करने लगा था ।
हम तीनो ने बहुत मना किया था की ऐसे मत किया कर लेकिन इसने हिम्मत नही हारी कई बार पुलिस के द्वारा पोस्टर चिपकाने पर पकड़ लिया जाता और पुलिस के द्वारा कुछ रुपए ऐंठने के बाद छोड़ दिया जाता।
कोचिंग वाले ने इसे पैंपलेट बांटने के साथ साथ कोचिंग भी फ्री दी थी जिस से इसे अपनी पढ़ाई जारी करने का अवसर मिल गया । 4 जने रहने की वजह से मकान मालिक ने हमारा रूम खाली करवा दिया फिर हम आपस बिछड़ गए ।
एक वक्त ऐसा भी आया की चतर के पास रहने के लिए कमरा भी नही था वो किसी दूसरे के कमरे पर रुका रहा आखिर कितने दिन गुजार सकता था इसी के चलते काम मिल ही गया अब चतर को एटीएम में सिक्योरिटी गार्ड की जॉब मिल चुकी थी । कहते है ना जब ईश्वर ने जन्म दिया है तो रहने के लिए छत भी देता है तो अब वो छत चतर के लिए एटीएम का कमरा बन चुका था एटीएम में सिक्योरिटी गार्ड के रहने के लिए छोटी सी जगह बनी हुई थी जिसमे सिर्फ लेट लायक जगह थी जो की चतर को सोने के लिए पर्याप्त थी। सुबह चतर कोचिंग के पर्चे बांटता और रात बसेरा एटीएम था ही नहाने के लिए सुलभ शौचालय का सहारा लेने लगा यही कुछ दिन की दिनचर्या बन चुकी थी लेकिन किस्मत से जल्द ही चतर ने रूम देख लिया क्योंकि उसकी पढ़ाई बिना कमरे के सुचारू रूप से नही चल पा रही थी ।।
चतर ने कोचिंग के पास ही रूम ले लिया क्योंकि इसे यहां से नजदीक भी था और कोचिंग करने का टाइम भी मिल जाता था । चतर को परिवार से आर्थिक सहायता नही मिल पाई क्योंकि परिवार भी इस हालत में नही था की चाहते हुए भी इसे शिक्षा दिला पाए ।
चतर के पिताजी पत्थर खोदने का काम छोड़ कर दौसा में मूंगफली बेचने लगे चतर की मां भी मजदूरी करने लगी लेकिन चतर ने फिर उनसे पैसा नही मांगा उसे खुद पर भरोसा होने लगा ।
चतर ने पैसे की तंगी को कम करने के लिए केटरिंग बॉय का काम भी किया इस काम से पेट भर जाता था और कुछ पैसे भी मिल जाता था। ऐसे समय अकसर सभी की हिम्मत जबाव दे जाती है लेकिन चतर ने अपनी हालातो को नजरंदाज करते हुए दिन रात मेहनत की ।
कहते है ना की किए की मजदूरी तो भगवान भी नही रखता और हुआ भी यही चतर का ग्रुप डी 2014 में सिलेक्शन विजयवाड़ा में हो गया यही से इसकी किस्मत ने पलटना शुरू कर दिया इस सिलेक्शन से मां बाप की आंखों में आशा की किरण छा गई । और अब डिपार्टमेंटली एग्जाम देकर गार्ड के पद पर पहुंच गया । जिन हालातो से चतर गुजरा है उन हालातो में अकसर हिम्मत टूट जाया करती है या फिर कमाई की आदत पड़ जाने से शिक्षा से किनारा हो जाता है लेकिन चतर अपने लक्ष्य से बिलकुल नहीं भटका और आज अपने परिवार के लिए आय का एक स्त्रोत बन कर खड़ा हो गया है। अब तो कद्र वे लोग भी करने लगे है जो लोग पहले किनारा कर चुके थे। वही अब तो कर्मचारी ग्रुप में भी जगह मिलने लगी है ।
इसी के साथ कहानी का अंत करते है ।।
✍️✍️ जयसिंह नारेड़ा
मीना गीत संस्कृति छलावा या व्यापार
#मीणा_गीत_संस्कृति_छलावा_या_व्यापार दरअसल आजकल मीना गीत को संस्कृति का नाम दिया जाने लगा है इसी संस्कृति को गीतों का व्यापार भी कहा जा सकता ...
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ना डरते है हम #तलवारो से, ना डरते है हम #कटारो से, ना डरे है हम कभी #सैकड़ो और #हजारो से, हम मीणा वो योद्धा है, #दुश्मन भी कांपे जिसकी #...
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