समय के साथ सब बदल गए,लेकिन नहीं बदली है तो वो गुड़ और तिल की गजक की खुशबू......ठंड के मौसम के साथ ही दस्तक देती है बाजारों में तिल और गुड़ की सजावट.....और उसके साथ ही आसमान में पक्षियों से भी ज्यादा नजर आने लगती हैं,रंग बिरंगी पतंग.....जो चारो आसमान को घेरे रहती है....ऐसा लगता है जैसे आसमान में रंगो की चादर बिछाई गई हो....
विभिन्न रंगों एवम् विभिन्न आकारों की ये पतंगे जब आसमान में एक साथ उड़ती हैं तो विभिन्नता में एकता का बोध कराती हैं ।
संक्रांत वाले दिन सुबह सुबह जीजी(मम्मी) घरों के आगे की झाड़ू लगाया करती थी सड़को को साफ करना परंपरा का हिस्सा रहा है...अच्छा सबको याद तो होगा ही अपने गांवो में एक कहावत काफी प्रचलत थी आपकी तरफ थी या भी हमारी तरफ तो थी ऐसा माना जाता था की संक्रांत वाले दिन जो नही नहाता है वो अगले जन्म में गधा बनता है इसका ऐसा खौफ बना दिया जाता है की न चाहते हुए भी उस दिन सभी नहा ही लेते है....कुछ आस्था को माने वाले नहाने के लिए मोराकुंड जाते थे कुछ अन्य जगह भी जाते थे..
वो संक्रांत वाले दिन सुबह सुबह नहा के सबका एक साथ बैठ कर आग पर चल पीड़ा करना और फिर तिलकुटे और विभिन्न प्रकार के भोजन दाल-बाटी,चूरमा, खीर-पुआ तो कही कही कड़ी बाजरा का अन्नुकूट और शाम को गर्मा गर्म पकोड़ी का स्वाद एक अलग ही एहसास दिलाता था।
बचपन के साथ ये बातें भी अब पुरानी लगती हैं।आज के बच्चों को ना दही चूरमा भाता है और ना तिलकुटे की गजक की खुशबू और मिठास ही इन्हे लुभाती है।
मुझे याद है जब हम जयपुर रहते थे तब तो महीने पहले से ही पतंग उड़ाना शुरू कर देते थे और जैसे जैसे संक्रांत नजदीक आती जाती माहौल बहुत ज्यादा बढ़ जाया करता था छत पर डीजे लगा कर नाचना और बस शोर शराबा करने में काफी मजा आता था। ( हमारे गांव में पतंग रक्षाबंधन पर उड़ाई जाती है) रात को चिमनी जलाकर आसमान में छोड़ना वाकई अलग ही लेवल का अहसास होता था।
छोटे छोटे दुकान वालों की भी खूब चांदी रहती थी,वे रंग बिरंगीपतंग सजा कर अपनी दुकान में सबसे आगे लगा देते थे,आते जाते नजर उस पे पड़ती और बच्चो का मन उन्हें लेने के लिए भटक जाया करता था ।
अब के शहरी जीवन में ये चंचलता विलुप्त होती जा रही है,बच्चे खुद मे,मोबाइल में और टीवी की दुनिया में सिमटते जा रहे हैं।अब तो त्योहार आते हैं और चले जाते हैं । बच्चों को भनक भी नहीं लगती.....क्योंकि उन्हें अब मोबाइल से ही फुर्सत नही मिलती उन खुशियों के लिए टाइम ही नही निकाल पाते है अब उन्हें बचपन जीने की आदत ही नही रही है....पहले त्योहारों पर दोस्तो का इंतजार हुआ करता की गांव के दोस्त जो बाहर रहते है वे आयेंगे लेकिन अब वो भी खत्म हो गया है।
त्यौहार का सबसे ज्यादा इंतजार मां बाप करते है की उनके बच्चे आयेंगे परिवार में चहल पहल होगी हंसी मजाक होगी एक दूसरे के साथ उठने बैठने के साथ साथ सुख दुख के पल बांटने का मौका मिलेगा क्योंकि बच्चो के बहाने ही मां बाप भी अच्छे पकवान बना कर खा लेते है थोड़ी खुशियों में शामिल होने का मौका मिल जाता है बिना बच्चो के मां बाप के लिए वो त्योंहार एक दम सुने हो गए है ...
अब के बच्चे हाथों से मोबाइल छोड़ना ही नही चाहते नोकरी से छुट्टी नही मिल पाती है...वो जिम्मेदारियों तले अपने बच्चन के हर उस खेल का और त्योहारों की खुशियों गला घोट कर रह जाते ह
ज़िंदगी में बड़े बड़े सपने देखने के चक्कर में बचपन को भूल गए है...!!
मकर संक्रान्ति की ढेरों शुभकामनाएं 🙏🙏
जयसिंह नारेड़ा
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