----भय से डरता आम इंसान----
यहां दो चित्रों को मिलाकर एक चित्र तैयार किया गया है जिसका उद्देश्य यह समझाना मात्र है कि जब गणेश चूहे पर बैठ कर ब्रह्माण्ड की यात्रा कर सकता है तो फिर आम आदमी मुर्गे पर बैठ कर अपनी यात्रा क्यों नही कर सकता है!
अब आपको ये बात अजीब लगेगी की भला कोई व्यक्ति मुर्गे पर कैसे बैठेगा और यदि बैठ भी गया तो मुर्गा बचेगा भी या उसका कचूमर निकल जायेगा!
जनाब ज्यादा मत सोचियेगा क्योकि जब गणेश जी जिसे व्यक्ति अपना भगवान मनाकर पूजा करता है वे भी तो चूहे पर ही बैठे हुए है जबकि मुर्गा का आकार तो चूहे से काफी बडा है जिससे चूहे की अपेक्षा मुर्गे पर आसानी से बैठा जा सकता है!जरा दिमाग पर जोर डालियेगा!
आज का इंसान बहुत डरा हुआ है। हर ज़िन्दगी भीतर से कितनी सहमी हुई-सी है। बाहर चाहे कोई कितना भी खिलखिलाए लेकिन भीतर किसी-न-किसी जाने-पहचाने या अनजाने डर का हल्का या गहरा साया बना ही रहता है। हर इंसान को अपने भविष्य से डर लगता है। ऐसा लगता है जैसे कि हम मौत से भी अधिक अपने भविष्य से डरते हैं। असुरक्षा की भावना ने इस कदर हमारे अंतस में अपने पंजे गड़ा लिए हैं कि हम हर बात को लेकर भयभीत हैं। असुरक्षा की इस भावना के पीछे काफ़ी हद तक हमारी महत्त्वकांक्षाओं का हाथ भी है। अपनी ज़िन्दगी में हमें सब कुछ परफ़ेक्ट चाहिए –कोई बीमारी ना हो, कोई कलेश ना हो, कोई दुख ना हो, बहुत-सा धन मिले, बड़ा-सा घर हो, लम्बी-सी गाड़ी हो, जीवनसाथी सुंदर हो, बच्चे बड़े स्कूलों में पढ़े और फिर उन्हें भी बहुत-सा धन मिले… कमाल की बात यह है कि अगर ये सब मिल भी जाता है तो भी हमारा डर कम नहीं होता! तब हमें किसी और अनहोनी के होने या फिर कुछ ऐसा घट जाने का डर सताने लगता है जो हमारे नए-नए प्राप्त सुख में बाधा डाल दें!
कुल मिलाकर बात यह कि चारों ओर हर इंसान डरा हुआ दिखता है। कुछ लोग इस डर को ज़ाहिर कर देते हैं कुछ छिपाकर रखते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो इस डर में जीते जीते इसके इतने आदी हो चुके होते हैं कि उन्हें इस डर के अस्तित्व का पता ही नहीं चलता –चाहे जो भी हो लेकिन भय का यह राक्षस हर दिल में घर किए हुए है।
यदि इन टिप्पणियों के पीछे डर की लेशमात्र भावना भी हुई तो यह ईश्वर और मनुष्य के साथ उसके प्रेम भरे संबंध का अपमान ही होगा। ईश्वर से कभी नही डरना चाहिए क्योंकि ईश्वर कभी हमारा बुरा नहीं करता। भगवान हमारे रक्षक हैं, भक्षक नहीं!
जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि असुरक्षा की इस भावना के पीछे काफ़ी हद तक हमारी महत्त्वकांक्षाओं का हाथ भी है। हमारी ज़रूरते इतनी अधिक बढ़ चुकी हैं कि उन्हें पूरा करना शायद ईश्वर के बस में भी नहीं रह गया है। अधिकांश लोग अपनी पूरी उम्र अर्थहीन कार्यों में व्यर्थ करते हैं –कोशिश उनकी यही होती है कि बस भविष्य में आराम हो जाए –लेकिन भविष्य का आराम ढूंढते-ढूंढते जीवन ही बीत जाता है और जब अंतिम क्षण ज़िन्दगी के दरवाज़े पर दस्तक देतें हैं तो आदमी बस यही सोचता रह जाता है:
जीवन सारा बीत गया, जीने की तैयारी में!
अधिकतर लोग जीने की तैयारी करते-करते ही जीवन बिता देते हैं –और जीवन को जी नहीं पाते। अधिकांश लोग केवल अपने लिए संसाधन जुटाने में ही जीवन गंवा देते हैं और किसी अन्य को प्यार, मुस्कान और समर्पण देने के सुख से हमेशा वंचित रहते हैं। लोग यदि अपने मन से भविष्य का डर निकाल पाएँ और दूसरों के लिए जीना सीख पाएँ –तभी वे जी पाएंगे। जो केवल स्वयं के लिए जीने के संसाधन जुटाते हुए जीते हैं –उनका “जीना भी कोई जीना है लल्लू?”
नोट:- मेरी पोस्ट के सभी पात्र और घटनाए काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति,भगवान या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी भगवान से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। पुनः मेरा मकसद किसी की आस्था को ठेश पहुचाना नही था!यदि उन्हें ऐसा लगता है तो मेरी कोई गलती नही ह ये सब मै नही पुराण,वेद एवं ग्रन्थ कहते है अतः मुझसे पहले उन्हें दोषी साबित करे
लेखक:-
जयसिंह नारेड़ा
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