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तू की जाने प्यार मेरा....भाग-1

कुछ दिनों से शायद मुझे उसमें कुछ अधिक ही दिलचस्पी हो रही थी, ऐसा लगता था जैसे उसके बिना सब कुछ अधुरा सा है। अगर दोस्तों में भी कोई उसका जिकर करता तो दिलो दिमाग में एक अजीब सी सिहरन पैदा होती थी। मगर उसके मन ऐसा कुछ था या नहीं मै नहीं जानता। मगर मुझे सिर्फ उसे देखना या उसके बारे में बात करना हमेशा से अच्छा लगता था। कोचिंग जाता तो भी ऐसा सोचता काश वो मुझे बस में दिख जाए। मन में एक ही विचार रहता एक एक बार उसे जी भर के देख लू तो दिल को सुकून मिल जाये। मगर उसके दर्शन भी दुर्लभ ही थे। या यु कहे तो हमारी किस्मत में उनके दीदार शायद कम ही थे। उनका और हमारा संपर्क कभी नही हो पाता था वो आगे की सीट पर बैठते और हम पीछे की सीटों पर!हमारी पहचान कोचिंग में बदमासो में होती थी!हमारे दोस्त भी उसे चाहने में लगे हुए थे और हम अपनी रफ्तार दोस्तों के लिए रोकना चाहते थे!लेकिन ये सब करना आसान नही हो पा रहा था! उनके साथ उसी बस में जाना और आना यही दिनचर्या बन गयी थी मेरी। और शाम के वक्त उनका बाहर निकलना तो होता ही न था और हमारे दोस्त भी किसी दुश्मन से कम नही थे!जब उनका निकलने का समय होता कमीने कही ना कही से टपक जाते। हम घंटों अपने घर की छत पर उनकर इन्तेजार करते रहते।
गुस्सा भी आता था लेकिन उनके सामने आते ही सब हवा हो जाता। सच कहु तो उसके सामने बोलने की भी हिम्मत नहीं होती थी। दिल की बात बताना तो दूर कुशल मंगल भी न पूछ सकता था। फिर धीरे धीरे उनसे मोह बढ़ता ही गया और उन्होंने हमें दरकिनार करना शुरू कर दिया । एक हम थे जो उनकी फिकर दिन रात करते और एक वो थी जो हमारी फिकर सायद कभी न करती होंगी।
मै हमेशा सपनो की दुनिया में खोया रहता था!
बस यही से हमारे प्यार की कहानी शुरू हो जाती है ...
शेष अगली किश्त में.......
नोट:-कहानी का किसी घटना एवम पात्र से कोई सम्बन्ध नही है!यदि इसका किसी से कोई सम्बन्ध पाया जाता है तो उसे महज एक संयोग माना जायेगा
एक अज्ञानी लेखक की कलम से
जयसिंह नारेड़ा

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