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माटी के लाल(आदिवासी कविता):-जयसिंह नारेड़ा

माटी के लाल-आदिवासी कविता:-जयसिंह नारेड़ा
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वो जो सभ्यताओं के जनक है, होमोफम्बर आदिवासी, संथाल-मुंडा-बोडो-भील, या फिर सहरिया-बिरहोर-मीण-उराव नामकृत , पड़े हैं निर्जन में, माटी के लाल ! जैसे कोई लावारिश लाश , मनुष्यत्व के झुरमुट से अलग-थलग,
बदनीयत सभ्यता ने काट फेंक दी हो !
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उन वन कबीलों में जँहा पाला था उन्होंने, सभ्यता का शैशव अपनी गोदी में , और चकमक के पत्थरों पर नचाई थी आग, वँही पसरा है तेजाबी अंधियाला , और कर रही लकड़बग्घे से आधुनिकता, बनवासियों का देहदहन ! जंगल अब मौकतल है , और दांडू मानो मॉडर्नटी पर मुर्दा इल्जाम !
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वो जिन्होंने दौड़ाई थी पृथ्वी, अपने उँगलियों के पहियों पर , और ढान्पी थी लाज अपने हुनर के पैबन्दो से, वही दौड़ रहे हैं भयभीत सहमे हुए नंगे बदन , अपने अस्तित्व के संघर्ष को , नंगे पाँव !
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लार टपका रहें उनकी बस्तियों पर , संविधान में बैठे कुछ अबूझे भूत, और लोकतन्त्रिया तांत्रिक कर रहे है , मुर्दहिया हैवानी अनुष्ठान ! आदि सभ्यता के अंतिम अवशेष , लुप्त हो रहे अत्विका , प्रगतिशील पैशाचिक भक्षण में , कर दिए गए है जंगल से ही तड़ीपार !
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वंहा सड़ चुका है कानून जाने कब से मरा पड़ा, सडांध मार रहा है चमगादड़ों सा लटका हुआ उलटा चिल्ला रहा है मै ज़िंदा हूँ ! एक मरहुआ ढोंगी तीमारदार ड्रगसिया हवस में, जंगल का जिस्म भोग रहा है !
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खिलते थे कभी वंहा सहजन की कली में पचपरगनिया-खड़िया-संताली- असुरिया जीवन के अनगिनत मधुर गीत बजते थे ढक-धमसा-दमना पर पर आदिवासियत के छऊ-सरहुल-बहा नृत्य राग और साथ आकर नाचता था सूरज चंद्रमा गीत गाता था वँही अब फैला है विलुप्तता का संत्रास !
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तुम भी कह दोगे ऐंठते हुए अरे वो दर्ज तो है तुम्हारा आदिवासी सविधान में मगर किस तरह महज एक ठूंठ सा शब्द अनुसूचित जाति किसी डरावनी खंडरिया धारा के अनुच्छेद में कैद एक गुनाह भर !
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पर मै कहूंगा , सावधान दांडू ! फिर ना कोई मांग बैठे एकलव्य का अंगूठा , सचेत रहो सहयोग से भी , जब तलक कोई भीलनी , कंही भी घुमाई जायेगी निर्वस्त्र , कोई केवट नहीं कराएगा , किसी राम को गंगा नदी पार !
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एक पहाड़िया विद्रोह का भस्म उठा लाओ बिरसा मुंडा-टन्टया की धधकती अस्थियों से तान लो जरा प्रत्यंचा पर विद्रोह करो महाजुटान महाक्रान्ति का अपनी कमान पर जरा देह-हड्डियों की सुप्त दहकन को सीधा करो साधो हुलगुलानो के ब्रह्म तीर और गिद्धई आँखे फोड़ दो ! के सुरहुलत्सव में ना चढाने पड़े टेशु के खून सने फूल !
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नदियों का हत्याकांड , शाल के कटे हुए जिस्म , सींच दो अपने बलिदानों से सारडा-कारो-खरकई सबको पुनर्जीवित करो है जंगल के पुजारी लोहे के प्रगालनी जरा जंगल की रंगोली को प्रतिरक्षित करो न रह जाए कंही पहाड़ भी महज शमशान का एक पत्थर !
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क्योंकि सजाए रखेंगे सरकारी दस्तावेज बड़ी संजीदगी- साफगोई से आदिवासियत के मुर्दा पथरीले माडल किसी ट्रेड फेयर में सजा देंगे शौकैस की तरह निर्जीव दांडू बिकने को खड़ा छोड़ दिया जाएगा और फिर दे दी जायेगी कंही दो मिनट की फरेब मौन श्रद्धांजली और भुला दिए जाओगे किसी किस्से की तरह !
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याद आयेंगे आप को भी बस , आप जो पढ़ रहे , किसी ऐसी ही कविता में आंसुओं से टपक जायेंगे , और फिर आप भी इस सदमे से बाहर !
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और फिर आयेगा कोई पुरातत्वेत्ता खोदेगा पांच-छह फूट जमीन और कहेगा आदिवासी ! हुलजोहर ! बस तभी आयेंगे दो पल को आदिवासी साइडलाइन के श्राप से मुक्त हमारी मेनस्ट्रीम में !
माटी के लाल(आदिवासी कविता):-जयसिंह नारेड़ा http://jsnaredavoice.blogspot.com/2015/09/blog-post_29.html
लेखक:-
©जयसिंह नारेड़ा

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