Skip to main content

बस का सफर

आज ऑफिस से घर जाने के लिए देर हो रही थी इसलिए मैं जल्दी-जल्दी ऑफिस से घर के लिए निकल पड़ा. मेरा ऑफिस घर से करीब 15 किलोमीटर दूर स्थित है और मुझे वहाँ पहुचनें के लिए उत्तम नगर से रोज बस पकड़नी पड़ती है.

आज में बस स्टॉप पर थोड़ा देर से पहुँचा था और मेरी निगाह 817 नंबर वाली बस जा चुकी थी. कुछ ही पल में एक बस आई और मैं उसमें चढ़ गया.

आज बस में काफी ज्यादा भीड़ थी. बड़ी मुश्किल से मुझे बैठने के लिए थोड़ी सी जगह मिल पाई. बस रवाना हो चुकी थी और मैं अपने कान में लीड लगाकर गाने सुनने का मन करने लगा फिर भीड़ को देख कर मोबाइल निकालने की हिम्मत नही हुई क्योंकि मोबाइल चोरी के किस्से मैने बहुत सुन रखे थे.!! यहां कब मोबाइल,पर्स और पैसे गायब हो जाए पता नही लगता इस क्षेत्र में चोर बहुत ज्यादा है। इसलिए मोबाइल जेब पड़े रहने देना ही मैने ठीक समझा ।।

मेरे मन में तरह-तरह के विचारों ने उथल पुथल मचाना शुरू कर दिया. बस और रेल का सफर करनें पर असली भारत के दर्शन होते हैं, यहीं पर ही भारत की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति का वास्तविक पता चल पाता है.

इनमें ही अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा, हिन्दू-मुस्लिम आदि सभी धर्मों, वर्णों और सभी तरह की हैसियत वाले लोग सफर करते हैं. कई लोग वक्त का सदुपयोग करने के लिए राजनीतिक चोसर को फैला कर कुछ न कुछ वाद विवाद का पासा फैंक देते हैं और सभी लोग इस राजनीतिक चर्चा और वाद विवाद के पासे को चटकारे के साथ खेलना शुरू कर देते हैं.

बस में कुछ युवा कानों में इयरफोन लगाकर गाने सुनने में मशगूल थे, तो कुछ लोग अपनी सहयात्री से बाते करने में मशगूल हो गए थे।

मेरे आगे की सीट पर तीन चालीस पैंतालीस वर्ष के आदमीं बैठे हुए थे तथा वो किसी बात पर वाद विवाद कर रहे थे. मैं भी बैठे-बैठे बोर हो रहा था सो मैंने उनकी बातों पर ध्यान देना शुरू कर दिया. वो लोग आदर, संस्कार और परम्पराओं के बारे में बातें कर रहे थे.।
उनमे से एक बोला “अब तो समाज में किसी के लिए भी आदर नाम की कोई चीज नहीं बची है, आज पड़ौस में रहने वाली एक छोटी सी बच्ची मुझसे जबान लड़ाने लग गई.

उसके घरवालों को इतनी भी तमीज नहीं है कि वो उस बच्ची को आदर और संस्कारों के बारे में कुछ सिखाये. बड़ो से कैसे बात की जाती है? कैसे उनका आदर किया जाता है? अंकल न सही, कम से कम नाम के आगे जी तो लगा देती.“सीधे ही नाम से संबोधित कर रही थी तू तड़ाके से बात करने लगी थी.!

दूसरा आदमीं उसकी बात में हाँ से हाँ मिलाते हुए बोला “तुम सही कहते हो, अब तो बच्चों को क्या बच्चों के पेरेंट्स को भी संस्कारों का नहीं पता.।

वैसे बच्चों का भी अधिक दोष नहीं है क्योंकि बच्चे तो वही सीखेंगे जो वो घर में देखेंगे और जब घरों का वातावरण ही कुसंस्कारी हो रहा है तो फिर बच्चों का क्या दोष हैं. लोग अब बड़े बुजुर्गों का आदर सम्मान कहाँ करते हैं ?”

अब तीसरे की बारी थी सो वह भी बोल पड़ा “भाई, बात तो सही है, संस्कार तो पुरानी पीढ़ी से ही नई पीढ़ी में स्थानांतरित होते हैं और जब पुरानी पीढ़ी ही संस्कारों से महरूम रहे तो वो नई पीढ़ी को क्या संस्कार दे पायेगी.

अपने समय में तो ऐसा नहीं होता था, हम तो बड़े बुजुर्गों को उनके पैर छूकर सम्मान दिया करते थे. अब कहाँ किसी का सम्मान रह गया है? सब पाश्च्यात संस्कृति में रंगे जा रहे हैं और कोई किसी को सम्मान नहीं देता है, संस्कार समाप्त होते जा रहे हैं.“।

अभी इनकी बातें चल ही रही थी कि अगले बस स्टॉप उत्तम नगर वेस्ट से एक औरत अपने एक हाथ में थैला और दूसरे हाथ में लगभग तीन साल के बच्चे को लेकर चढ़ी.

बस में सीट तो क्या पैर रखने की भी जगह नहीं थी परन्तु फिर भी उसने चारों तरफ ढूँढती हुई निगाहों से देखा और मेरे आगे वाली सीट के कुछ आगे खड़ी हो गई.

अचानक बस चालक ने ब्रेक लगाये और वो महिला बच्चे सहित आगे की तरफ गिरती गिरती बची और फिर से अपनी जगह पर खड़ी हो गई. उसने उन तीन संस्कारी आदमियों की तरफ देखा तो उनमें से एक फुसफुसाया “यहाँ तो हम पहले से ही तीन लोग बैठे हुए हैं, यहाँ पर जगह नहीं हैं.“

फिर कुछ देर पश्चात अगले बस स्टॉप नवादा से लगभग सत्तर वर्ष के एक बुजुर्ग बस में चढ़े. पीछे आकर वो भी उस महिला के पास में खड़े हो गए परन्तु किसी ने भी न तो उस बुजुर्ग के लिए और न ही उस महिला के लिए सीट छोड़ी.

मैं भी इस बारे में सोच रहा था परन्तु पता नहीं क्यों मैं भी ऐसा नहीं कर पाया. शायद में भी रोज-रोज एक सी परिस्थितियाँ देखकर संस्कारविहीन हो चुका था.

अगले स्टॉप द्वारका मोड़ पर लगभग बीस वर्ष की एक सुन्दर युवती बस में चढ़ी. उस युवती को बस में चढ़ता देखकर ऐसा लगा जैसे बस में बैठा हर पुरुष ये दुआ कर रहा हो कि काश ये मेरे पास आकर बैठे.।
बस में जगह नहीं थी सो वह भी पीछे आकर उन बुजुर्ग के पास खड़ी हो गई. उसे बस में खड़ा देखकर उन तीन आदमियों का जी जलता हुआ सा प्रतीत हो रहा था.।

जब रहा नहीं गया तो उनमे से एक बोला “आप यहाँ बैठ जाइये.” एक अजनबी के द्वारा सीट मिलने पर वह खुश हुई परन्तु फिर बोली “लेकिन यहाँ तो सीट खाली ही नहीं है?” दूसरा बोला “कोई बात नहीं, हम लोग थोड़ा-थोड़ा एडजस्ट कर लेंगे.“
लेकिन वो थोड़ा सकुचाते हुए बोली “नहीं नहीं, कोई बात नहीं.“ उसका ये उत्तर सुनकर तीसरे आदमी का पौरुष जागा और वह सीट पर से उठते हुए बोला “ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई महिला खड़े-खड़े सफर करे और हम देखते रहें.

ये हमारे आदर और संस्कार नहीं है कि हम महिलाओं का सम्मान नहीं करें. हमारी संस्कृति हमें महिलाओं और बुजुर्गों का सम्मान करना सिखाती है इसलिए आप कृपया यहाँ पर बैठिये.“ इतने आदर्श वाक्य सुनकर वह युवती मनमोहक मुस्कान के साथ उसकी सीट पर बैठ गई.

पास ही खड़े बुजुर्ग और बच्चे के साथ वाली महिला ये सब देखकर सोच में पड़ गए कि “हम भी तो इतनी देर से बस में खड़े थे फिर अचानक इनका सोया हुआ ये सम्मान कैसे जाग गया?”

इस प्रकार के आदर और सम्मान को देखकर मैं शर्म से पानी-पानी हुए जा रहा था और आखिर में मुझसे रहा नहीं गया तो मैंने अपनी सीट पर उस महिला को बैठाया और स्वयं खड़ा हो गया. मैंने महसूस किया कि अब मेरे मन में एक अजीब सा गर्व हिलोरे मार रहा था.

मिलते है अगले किस्से के साथ......

जयसिंह नारेड़ा

Comments

Popular posts from this blog

मीणा शायरी

ना डरते है हम #तलवारो से, ना डरते है हम #कटारो से, ना डरे है हम कभी #सैकड़ो और #हजारो से, हम मीणा वो योद्धा है, #दुश्मन भी कांपे जिसकी #ललकारो से, #हस्ती अब अपनी हर #कीमत पर #सवारेंगे, #वाद...

एक मच्छर,साला एक मच्छर,आदमी को हिजड़ा बना देता है!-जयसिंह नारेड़ा

एक मच्छर , साला एक मच्छर , आदमी को हिज ड़ा बना देता है ! ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ एक खटमल पूरी रात को अपाहिज कर देता है. सुबह घर से निकलो, भीड़ का हिस्सा बनो. शाम को घर जाओ, दारू पिओ, बच्चे पैदा करो और सुब...

नारेड़ा गोत्र या गांव टोड़ी खोहरा का इतिहास

नारेड़ा गोत्र या गांव टोड़ी खोहर्रा(अजितखेड़ा) का इतिहास ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ बड़े बुजुर्गो के अनुसार टोड़ी खोहर्रा के लोग कुम्भलगढ़ में रहते रहते थे ये वही के निवासी थे! इनका गोत्र सिसोदिया था और मीनाओ का बहुत बड़ा शासन हुआ करता था! राजा का नाम मुझे याद नही है किसी कारणवस दुश्मन राजा ने अज्ञात समय(बिना सुचना) के रात में आक्रमण कर दिया! ये उस युद्ध को तो जीत गए लेकिन आदमी बहुत कम रह गए उस राजा ने दूसरा आक्रमण किया तो इनके पास उसकी सेना से मुकाबला करने लायक बल या सेना नही थी और हार झेलनी पड़ी! इन्होंने उस राजा की गुलामी नही करने का फैसला किया और कुम्भलगढ़ को छोड़ कर सांगानेर(जयपुर) में आ बसे और यही अपना जीवन यापन करने लगे यंहा के राजा ने इनको राज पाट के महत्व पूर्ण काम सोपे इनको इनसे कर भी नही लिया जाता था राजा सारे महत्वपूर्ण काम इन मीनाओ की सलाह से ही करता था नए राजा भारमल मीनाओ को बिलकुल भी पसन्द नही करता था और उन पर अत्याचार करता रहता था! एक बार दीवाली के आस-पास जब मीणा पित्रों को पानी दे रहे थे तब उन निहत्तो पर अचानक वार कर दिया! जिसमे बहुत लोग मारे गए भारमल ने अपनी बेटी अकबर को द...