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बचपन की दिवाली

बचपन की दिवाली

दिवाली एकमात्र ऐसा त्यौहार होगा जिसे आने के महीने भर पहले से तैयारी में लग जाते हैं। घर की साफ-सफाई, रंग–रोगन, तरह तरह मिठाई जिसमे मुख्य रूप से मावा की मिठाइयां सच में एक अलग ही उत्साह होता है| पर आज कितना भी बड़े हो जाए लेकिन बचपन की वो दिवाली नहीं भूली जा सकती | लेकिन ये सब अब नही देखने को मिलता

 जब दिवाली आने की सबसे ज्यादा खुशी होती थी क्यूंकि स्कूल की महीने भर की छुट्टियां | पर साथ मे
भगवान से प्रार्थना दिवाली का ढेर होमवर्क नहीं मिल जाए और अगर कोई टीचर ढेर सारा होमवर्क दे देता तो
वह किसी विलेन से कम नहीं लगता मन ही मन ढेरो गालियां तो दे ही देते थे । छुट्टियां आते ही थैला किस कोने में पड़ा होता यह तो पता ही नहीं चलता ??

छुट्टियों का अपना अलग ही मजा होता था सारे दिन दोस्तो के साथ घूमना,खेलना कूदना और मस्ती करना दिन तो पता ही नही चलता कब निकल गया और जब जीजी (मम्मी ) भाई (पापा) साफ सफाई की कह दे तो मानो जीव ही निकल गया हो दिवाली का सबसे बोरिंग पार्ट साफ सफाई करना ही लगता है।

शाम के टाइम जब भाई पटाखे लेकर आता तो महाभारत हो जाती मुझे ये नहीं चाहिए सुतली बॉम्ब ही चाहिए छोटा तो छोटा वाला (ज्ञानी) चला लेगा😂 
                                               टिकड़ी को छीलकर माचिस का बुरादा भरकर एक तगड़ा बम्ब बनाने का अपना अलग ही स्वैग था। कभी कभी तो दो बोल्ट के बीच में भर कर भी फेका करते थे ।

घर की छत और दीवारों को रोशनी की लड़ियो से सजाते। दीपकों में तेल भरकर जलाना और पडौसियो के घर जाकर दीपक जलाना देवी देवताओं के थान पर भी दीपक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी लेनी पड़ती थी

और जैसे लक्ष्मी पूजा हुई पटाखों से पूरे घर को गूंजा देना  दाल बाटी खाकर सो जाना सुबह जागते ही जले पटाखों को ढूंढना क्या पता कोई बचा साबुत पटाखा मिल जाए और उसको मिलने पर ऐसे खुश होते जैसे कोई खोया खजाना हाथ लग गया हो।

अगले दिन गोरधन पूजा पर दिन में ही चूरमा बाटी बनाते और शाम को गोरधन की पूजा की जाती बचपन से देखते आ दे है गोरधन भी भाई(पापा) ही बनाया करते है। हमारा गोरधन गांव में सबसे बड़ा बनता है । इसे गांव की एकता का परिचय भी कह सकते है लेकिन आजकल तो अलग घर घर में लोग पूजने लगे है दिनों दिन ये संख्या कम हो रही है ।

अगले दिन भैया दौज और ये त्यौहार हमारे कोई काम का नही था क्योंकि हमारे कोई बहन नही है हमेशा मौसी की लड़कियों की तरफ झांका चौकी करनी पड़ती थी अब दूसरा तो आए तो आए या नहीं आए
                                         अब हमने 2 धर्म की बहन बना ली ये कमी पूर्ति हो गई है।

ये सारी बात तो थी बचपन की लेकिन ये सब अब सपना सा बन कर रह गया है अब सारे बचपन के दोस्त बाहर रहने लगे है गांव आना जरूरी नहीं समझते कुछ जान कर नही आते तो कुछ की मजबूरियां हो गई है कुछ दोस्तो ने गांव से बाहर मकान बना लिए है तो वे ऐसे नही आते। यानी की सीधे तौर पर कहे तो अब गांव के लोगो का पलायन हो गया है।

                             गांव से लोगो के पलायन ने सारे त्योहारों की मटिया मेट कर दी है। आज दिवाली है लेकिन बिलकुल भी त्योहार जैसा नहीं लग रहा है।क्योंकि वो रौनक बिल्कुल भी नजर नही आती है अब तो ऐसे लगता है जैसे बचपन की दिवाली अब सिर्फ बचपन का सपना ही बन कर रह गया है।

✍️✍️जयसिंह नारेङा

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