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डॉ किरोडी लाल मीणा को बदनाम करने का नया तरीका

समाज सेवकों के वेश में भावी मनुवादी जन प्रतिनिधि तैयार हो रहे हैं?

समाज सेवकों के वेश में भावी मनुवादी जन प्रतिनिधि तैयार हो रहे हैं?
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

राजस्थान सरकार की पूर्ववर्ती कांग्रेसी और वर्तमान भारतीय जनता पार्टी की राज्य सरकार के प्राश्रय से राजस्थान में 'मीणा' जनजाति को आरक्षित वर्ग में से बाहर निकालने के दुराशय से एक सुनियोजित षड़यंत्र चल रहा है। जिसके तहत 'मीणा' जनजाति के बारे में भ्रम फैलाया जा रहा है की 'मीणा' और 'मीना' दो भिन्न जातियां हैं। 'मीना' को जनजाति और 'मीणा' को सामान्य जाति बताया जा रहा है। जिसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि शुरू में जारी अधिसूचना में एक सरकारी बाबू ने 'मीणा' जाती को अंग्रेजी में Mina लिख दिया। जिसे बाद में हिन्दी अनुवादक ने ‘मीना’ लिख दिया। इसके बाद से सरकारी बाबू सरकारी रिकार्ड में मीणा जनजाति को समानार्थी और पर्याय के रूप में (Meena/Mina) (मीणा/मीना) लिखते आये हैं। राज्य सरकार के सक्षम प्राधिकारियों द्वारा 'मीणा' और 'मीना' दोनों नामों से जनजाति के जाति प्रमाण पत्र भी 'मीणा' जाति के लोगों को शुरू से जारी किये जाते रहे हैं। अनेक ऐसे भी उदाहरण देखने को मिल रहे हैं, जहॉं पर एक ही परिवार में बेटा का 'मीणा' और बाप का 'मीना' नाम से जनजाति प्रमाण पात्र जारी किये हुआ है।


इसके उपरांत भी मनुवादियों, पूंजीपतियों और काले अंग्रेजों द्वारा आरक्षित वर्गों के विरुद्ध संचालित 'समानता मंच' के कागजी विरोध को आधार बनाकर और समानता मंच द्वारा किये जा रहे न्यायिक दुरूपयोग के चलते मनुवादी राजस्थान सरकार ने आदेश जारी कर दिये हैं कि यद्यपि अभी तक 'मीणा' और 'मीना' दोनों नामों से 'मीणा' जाति को जनजाति प्रमाण-पत्र जारी किये जाते रहे हैं, लेकिन भविष्य में सक्षम प्राधिकारी  ‘मीणा’ जाति को जनजाति के प्रमाण पत्र जारी नहीं करें और जिनको पूर्व में 'मीणा' जन जाति के प्रमाण-पत्र जारी किये गये हैं, उनके भी 'मीना' नाम से जनजाति प्रमाण-पत्र जारी नहीं किये जावें। आदेशें में यह भी कहा गया है कि इन आदेशों को उल्लंघन करने पर अनुशासनिक कार्यवाही की जायेगी।

यहॉं स्वाभाविक रूप से यह सवाल भी उठता है कि यदि ‘मीना’ जाति ही जनजाति है तो 'मीना' जाति के लोगों को 'मीणा जनजाति' के प्रमाण-पत्र जारी करने वाले प्राधिकारियों के विरुद्ध राज्य सरकार द्वारा कोई अनुशासनिक कार्यवाही किये बिना इस प्रकार के आदेश कैसे जारी किये जा सकते हैं? विशेषकर तब जबकि 'मीणा' जनजाति के नाम से सरकार की ओर से जारी किये गये जन के जाति प्रमाण-पत्रों के आधार पर हजारों की संख्या में 'मीणा' जनजाति के कर्मचारी और अधिकारी सेवारत हैं। यही नहीं जब पहली बार मीणा जनजाति को जनजातियों की सूची में शामिल किया गया था तो काका कालेकर कमेटी ने अपनी अनुशंसा में हिन्दी में साफ़ तौर पर 'मीणा' लिखा था।

उपरोक्त सरासर किये जा रहे अन्याय और मनमानी के खिलाफ जयपुर में मीणा जाति की और से 12 अक्टूबर, 2014 को सांकेतिक धरने का आयोजन किया गया। जहॉं पर एक बात देखने को मिली कि मीणा समाज के लोग अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ तो खुलकर बोले, लेकिन राजनैतिक बातें करने से कतराते दिखे।

इस बारे में मेरा यह मानना और कहना है कि यह सर्व विदित है की आज के समय में कहने को तो देश संविधान द्वारा संचालित हो रहा है, मगर सच तो ये है कि सब कुछ, बल्कि सारी की सारी व्यवस्था ही राजनीति और ब्यूरोक्रेसी के शिकंजे में है, राजनेता तथा ब्यूरोक्रेट्स राजनैतिक पार्टियों के कब्जे में हैं। राजनैतिक पार्टियों पर मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों का सम्पूर्ण कब्जा है। मतलब साफ़ है कि सारे देश पर संविधान का नहीं मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों का कब्जा है। जब तक देश मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त नहीं होगा, देश का हर व्यक्ति मनुवादियों, पूंजिपतियों और काले अंग्रेजों द्वारा संचालित मनमानी व्यवस्था का गुलाम ही बना रहेगा। 

इस सबके उपरान्त भी 'मीणा' जाति ही नहीं, अकसर सभी समाजों के मंचों पर चिल्ला-चिल्ला कर घोषणा करवाई जाती हैं कि यहां राजनीति के बारे में कोई चर्चा नहीं की जाएगी। केवल इस डर से कि राजनीति की चर्चा करने से ऐसा नहीं हो कि 'मीणा' समाज के राजनेताओं का समर्थन मिलने में किसी प्रकार की दिक्कत पैदा नहीं हो जाये। इसके विपरीत इस बात को भी सभी जानते हैं कि राजनेता अपनी-अपनी पार्टी की जी हुजूरी पहले करते हैं। इसके बाद देश, समाज या अपनी जाति के बारे में सोचते हैं। फिर भी राजनीति के बारे में चर्चा क्यों नहीं होनी ही चाहिए? इस बात का कोई जवाब नहीं दिया जाता है।

ऐसी सोच रखने वालों से मेरा सीधा सवाल है कि राजनीति कोई आपराधिक या घृणित या असंवैधानिक या प्रतिबंधित शब्द तो है नहीं? राजनीति हमारे यहॉं संवैधानिक अवधारणा है। जिससे संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र संचालित हो रहा है। ऐसे में राजनेताओं और राजनीति दोनों की अच्छाइयों और बुराइयों पर खुलकर चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए? यदि चर्चा पर ही पाबंदी रहेगी तो फिर समाज को राजनीतिक दलों और राजनेताओं की असलियत का ज्ञान कैसे होगा? राजनैतिक अज्ञानता के कारण मनुवादियों की धोती धोने वाले और मनुवादियों की जूतियां उठाने वाले लोगों को आरक्षित क्षेत्रों से उम्मीदवार बनाया जाता है! जो समाज की नहीं अपनी पार्टियों की चिंता करते हैं। येन केन प्रकारेण जुटाये जाने वाले अपने वोटों की चिंता करते हैं। ऐसे में विचारणीय विषय यह होना चाहिए कि यदि आम जनता को राजनीति की हकीकत का ज्ञान ही नहीं करवाया जायेगा तो फिर वंचित, शोषित और पिछड़े तबकों के हकों की रक्षा करने वाले सच्चे राजनेताओं का उद्भव (जन्म) कैसे होगा?

12 अक्टूबर, 2014 को जयपुर में आयोजित उक्त मीणा-मीना मुद्दे के विरोध में आयोजित धरने कार्यक्रम का मैं साक्षी रहा। जिसमें मीणा-मीना मुद्दे पर खूब सार्थक और निरर्थक भाषण बाजी भी हुई। दबी जुबान में राजनैतिक बातें भी कही गयी। कभी दबी तो कभी ऊंची आवाज में सरकार को भी ललकारा गया। मनुवादियों द्वारा संचालित आरक्षण विरोधी 'समानता मंच' की बात भी इक्का दुक्का वक्ताओं ने उठायी। जिसे मंच तथा धराना आयोजकों की और से कोई खास तबज्जो नहीं दी। अर्थात 'समानता मंच' के विरोध को समर्थन नहीं मिला। यही नहीं बल्कि सबसे दुखद विषय तो ये रहा कि आरक्षित वर्गों का जो असली दुश्मन है, अर्थात मनुवाद, उसके बारे में एक शब्द भी किसी भी वक्ता ने नहीं बोला। 

अभी तक देखा जाता था कि राजनेता मनुवाद के खिलाफ बोलने से कतराते थे या इस मुद्दे पर चुप रहते थे तो आम लोग कहते थे कि राजनेता वोटों के चक्कर में मनुवाद के खिलाफ नहीं बोलते। मगर मीणा समाज के हकों की बात करने वाले मीणा समाज के कथित समाज सेवक भी इस बारे में केवल चुप ही नहीं दिखे, बल्कि इस मुद्दे से जानबूझकर बचते भी दिखे। मैंने मंच पर अनेकों से इस बारे में निजी तौर पर चर्चा भी की, तो सबने माना कि मनुवाद ही आरक्षण का असली दुश्मन है, मगर बिना कोई ठोस कारण या वजह के सब के सब मनुवाद के खिलाफ बोलने से बचते और डरे-सहमे नजर आये। ऐसे में मेरे मन में दो सवाल उठते हैं-

क्या मीणा समाज के समाज सेवकों को मनुवादियों से डर लगता है?

या

समाज सेवकों के वेश में भावी मनुवादी जन प्रतिनिधि तैयार हो रहे हैं?

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