Tuesday, February 2, 2016

शेयर करो वरना.........

इसे “शेयर” करो वरना…
आज का इंसान बहुत डरा हुआ है। हर ज़िन्दगी भीतर से कितनी सहमी हुई-सी है। बाहर चाहे कोई कितना भी खिलखिलाए लेकिन भीतर किसी-न-किसी जाने-पहचाने या अनजाने डर का हल्का या गहरा साया बना ही रहता है। हर इंसान को अपने भविष्य से डर लगता है। ऐसा लगता है जैसे कि हम मौत से भी अधिक अपने भविष्य से डरते हैं। असुरक्षा की भावना ने इस कदर हमारे अंतस में अपने पंजे गड़ा लिए हैं कि हम हर बात को लेकर भयभीत हैं। असुरक्षा की इस भावना के पीछे काफ़ी हद तक हमारी महत्त्वकांक्षाओं का हाथ भी है। अपनी ज़िन्दगी में हमें सब कुछ परफ़ेक्ट चाहिए –कोई बीमारी ना हो, कोई कलेश ना हो, कोई दुख ना हो, बहुत-सा धन मिले, बड़ा-सा घर हो, लम्बी-सी गाड़ी हो, जीवनसाथी सुंदर हो, बच्चे बड़े स्कूलों में पढ़े और फिर उन्हें भी बहुत-सा धन मिले… कमाल की बात यह है कि अगर ये सब मिल भी जाता है तो भी हमारा डर कम नहीं होता! तब हमें किसी और अनहोनी के होने या फिर कुछ ऐसा घट जाने का डर सताने लगता है जो हमारे नए-नए प्राप्त सुख में बाधा डाल दें!

कुल मिलाकर बात यह कि चारों ओर हर इंसान डरा हुआ दिखता है। कुछ लोग इस डर को ज़ाहिर कर देते हैं कुछ छिपाकर रखते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो इस डर में जीते जीते इसके इतने आदी हो चुके होते हैं कि उन्हें इस डर के अस्तित्व का पता ही नहीं चलता –चाहे जो भी हो लेकिन भय का यह राक्षस हर दिल में घर किए हुए है।

आजकल फ़ेसबुक इत्यादि पर एक नया चलन शुरु हो गया है जो पहले-पहल छपे हुए पर्चों के ज़रिए चला और फिर ईमेल के माध्यम पर कब्ज़ा जमाते हुए अब सोशल मीडिया तक आ पहुँचा है। फ़ेसबुक पर आए संदेशों की बानगी देखिए:

“श्री साईं बाबा की दुर्लभ जन्म कुंडली। इसको शेयर करने से आपकी कुंडली के ७०% दोष ठीक हो जाएंगे। बाबा गेंदामल जी का वचन है… उन्हीं की कृपा से प्राप्त दुर्लभ… आपको शेयर करना चाहिए”
अंधविश्वास से भरे इन संदेशों से बचिए और इन्हें फैलने से रोकिए

“अगर आपने शेरांवाली माँ की इस तस्वीर को लाइक किया तो दस दिन के भीतर कुछ अच्छा होगा… इस पर कमेंट की तो सात दिन में और शेयर किया तो दो दिन कुछ अच्छा होगा। डिलीट करने वाले को बुरा परिणाम भुगतना पड़ेगा”

इस तरह के संदेशे आजकल फ़ेसबुक पर खूब प्रचारित हो रहे हैं। पहले लोग अंधविश्वास से भरे ऐसे संदेशों को पर्चों पर छपवा कर और अखबारों में डाल कर लोगों तक पहुँचाते थे। आपको याद होगा, इनमें लिखा होता था कि फ़लां फ़लां ने इस पर्चे की एक हज़ार प्रतियाँ छपवा कर बांटी तो वह एक महीने में ही लखपति हो गया; और जिसने इस पर्चे को यूं ही फेंक दिया उसका घर-बार सब नष्ट हो गया। फिर ऐसे पर्चों को लाल-बत्तियों और चौराहों पर बांटे जाने लगे। लोगों को ये पर्चे ज़बरदस्ती थमा दिए जाते थे। मैंने लोगों को पर्चा थमाने वाले से इस तरह दूर भागते देखा है जैसे वह एक काग़ज़ का टुकड़ा नहीं बल्कि बम थमाने की कोशिश कर रहा हो! लोग सोचते हैं कि जब तक पर्चा हाथ में ना आ जाए तब तक पर्चे की कॉपियाँ छपवाना मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है –लेकिन यदि पर्चा हाथ में ले लिया (या थमा दिया गया) तब या तो हज़ार कॉपी छपवानी पड़ेंगी या फिर दैवीय प्रकोप का सामना करना पड़ेगा!

ऐसी घटनाओं के चश्में से देखें सारी दुनिया कैसी सरल, डरपोक-सी, भोली-भाली लगती है ना! ऐसा लगता है कि देखो, हर इंसान कितना सीधा-सादा, ईश्वर से डरने वाला है –किसी के मन में कोई पाप नहीं लगता!

बहरहाल, अब तकनीक का ज़माना आ पहुँचा है। छापेखाने से हज़ार पर्चे छपवाने की ज़रूरत नहीं। बस एक “शेयर” बटन दबा देने से आपका भाग्य बदल सकता है। हालांकि यह बटन दबाने वाले ये नहीं सोचते कि अगर भाग्य बदलना और सुखद घटनाओं को घटित होने के लिए बाध्य करना इतना आसान होता तो क्या दुनिया में कोई भी दुखी रहता?

हमारा देश वही है जिसमें कोई विवेकानंद हुए थे जिन्होनें कहा था कि “भय मृत्यु का ही दूसरा नाम है”… विवेकानंद का इशारा छिपकली, कॉक्रोच, ऊँचाई, पानी, बंद जगह इत्यादि के डर की ओर नहीं था। उनका इशारा उस डर की ओर था जो हमारे मन के भीतर छिपा बैठा रहता है।

ऐसे लोग भी हैं जो इन संदेशों को शेयर तो नहीं करते लेकिन “ओम साईं राम” या “जय माता दी” जैसी टिप्पणियाँ लिखकर अपनी सुरक्षा का मार्ग तलाशने की कोशिश करते हैं। यहाँ मैं भक्ति को बुरा नहीं बता रहा हूँ –बल्कि उस डर को बुरा बता रहा हूँ जिसके चलते कुछ लोग ये टिप्पणियाँ करते हैं। यदि ऐसी टिप्पणियाँ केवल और केवल अचल भक्ति का ही परिणाम होती हैं तो इसमें कोई समस्या नहीं –लेकिन यदि इन टिप्पणियों के पीछे डर की लेशमात्र भावना भी हुई तो यह ईश्वर और मनुष्य के साथ उसके प्रेम भरे संबंध का अपमान ही होगा। ईश्वर से कभी नही डरना चाहिए क्योंकि ईश्वर कभी हमारा बुरा नहीं करता। भगवान हमारे रक्षक हैं, भक्षक नहीं!

जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि असुरक्षा की इस भावना के पीछे काफ़ी हद तक हमारी महत्त्वकांक्षाओं का हाथ भी है। हमारी ज़रूरते इतनी अधिक बढ़ चुकी हैं कि उन्हें पूरा करना शायद ईश्वर के बस में भी नहीं रह गया है। अधिकांश लोग अपनी पूरी उम्र अर्थहीन कार्यों में व्यर्थ करते हैं –कोशिश उनकी यही होती है कि बस भविष्य में आराम हो जाए –लेकिन भविष्य का आराम ढूंढते-ढूंढते जीवन ही बीत जाता है और जब अंतिम क्षण ज़िन्दगी के दरवाज़े पर दस्तक देतें हैं तो आदमी बस यही सोचता रह जाता है:

जीवन सारा बीत गया, जीने की तैयारी में!

अधिकतर लोग जीने की तैयारी करते-करते ही जीवन बिता देते हैं –और जीवन को जी नहीं पाते। अधिकांश लोग केवल अपने लिए संसाधन जुटाने में ही जीवन गंवा देते हैं और किसी अन्य को प्यार, मुस्कान और समर्पण देने के सुख से हमेशा वंचित रहते हैं। लोग यदि अपने मन से भविष्य का डर निकाल पाएँ और दूसरों के लिए जीना सीख पाएँ –तभी वे जी पाएंगे। जो केवल स्वयं के लिए जीने के संसाधन जुटाते हुए जीते हैं –उनका “जीना भी कोई जीना है लल्लू?”
नोट:- मेरी पोस्ट के सभी पात्र और घटनाए काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति,भगवान या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी भगवान से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। पुनः मेरा मकसद किसी की आस्था को ठेश पहुचाना नही था!यदि उन्हें ऐसा लगता है तो मेरी कोई गलती नही ह ये सब मै नही पुराण,वेद एवं ग्रन्थ कहते है अतः मुझसे पहले उन्हें दोषी साबित करे
लेखक:-
जयसिंह नारेड़ा

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